जो सोए है उन्हें जगाते हैं हम अपने छंदों से. हम पिघलाते लौह-बेड़ियाँ कुछ स्याही की बूंदों से...
Wednesday, September 7, 2011
रामोदार का गुरुत्वाकर्षण का नियम
सफलता से आदमी में अहंकार नहीं आना चाहिए नहीं तो वो अपने जमीन पे टिके रहने की शक्ति खो देता है और उड़ने लगता है. इस तरह की क्षद्म-ऊर्जा युक्त उडती हुई चीज का गिरना तय है और समझने वाली बात है कि ज्यादा ऊंचाई से गिरने का अघात भी ज्यादा होता है. वसे तो सभी को चाहिए कि वो खुद को अहंकार से बचाए रखे लेकिन सफल आदमी के लिए ये ज्यादा जरूरी हो जाता. सफल व्यक्ति अगर विनम्र ना हो तो उससे दूर रहने की सलाह दी गयी है. "दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्या अलंकृतोपिशं, मणिना भूषित सर्पः किमसौ ना भयंकरः" विनम्रता का आभाव किस हद तक घातक हो सकता है उसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अवतारी पुरुष भी अविनाम्रता के दुष्परिणामों से नहीं बच पाए. ऐसा परशुराम अवतार की कथा में दृष्टिगोचर होता है. अपने क्रोध (या अविनाम्रता) के कारण भगवान परशुराम, जो कि स्वयं विष्णु के अवतार हैं, कभी भी जन-नायक नहीं हो पाए और यही परशुराम अवतार को रामावतार से भिन्न बनाता है. इसलिए सफल व्यक्ति को विनम्र होना चाहिए.
इन सारी चर्चाओं से परे होकर अगर सोचें तो ध्यान एक नए नियम की तरफ जाता है और उसे मैंने नाम दिया है रामोदार का गुरुत्वाकर्षण नियम: "सफलता के कारण गुरुत्वाकर्षण बल में कमी आती है और आदमी उड़ने लगता है." इस नियम के जितनी ज्यादा अपवाद मिलें समाज के लिए उतना ही अच्छा.
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1 इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है. और ये कौन सा वैज्ञानिक है जिसे आश्चर्य होता है जब पेड़ से सेब नीचे गिरता है. आश्चर्य तो तब होना चाहिए जब वो गिरने के बाद ऊपर भाग जाय.
2 माने: मतलब
गुरत्ता: गुरुत्व
अही लेके: इसी कारण से
नै: नहीं
उरने: उड़
Sunday, August 14, 2011
आजादी और पंद्रह अगस्त
सपने में देखी मैंने
एक
चौंसठ साल की वृद्धा
रात के अंतिम पहर में
खड़ी थी दिल्ली शहर में
दूर से देखा तो कमर झुकी थी
ऐसा आभाष हुआ
पास गया तो थोड़ा
विरोधाभाष हुआ
चेहरे पर झुर्रियों की
झड़ी लगी थी
मगर गहनों से लदी पड़ी थी
मुझे देख कर सहम गयी
और रही मौन
मैंने पूछा कौन?
इत्ती रात को क्या कर रही हो?
इतने जेवर डालकर
अँधेरे में कहा जा रही हो?
उसने कहा
मैं अँधेरे और अकेलेपन की आदि हूँ
क्योकि
मैं "आजादी" हूँ
जिसे होना चाहिए
लोगो के मन में
पर मैं बंद हूँ
संसद भवन में
हर अमीर, आज अपने में मस्त है
मध्यवर्ग, मंहगाई से पस्त है
हर गरीब, व्यवस्था से त्रस्त है
मुझे आज जेवर मिले हैं
क्योकि
आज पंद्रह अगस्त है
मैं रोती हूँ आततायिओं की
कारगुजारी पर
मैं जाती हूँ अब
मिलूंगी छब्बीस जनवरी पर.
स्वप्न टूटा तो
मैं खुद से कई प्रश्न कर रहा था
और उधर लाल-किले पर
जश्न मनाने का "दस्तूर" चल रहा था
सब छुट्टी में मस्त हैं
क्योकि आज पंद्रह अगस्त है।
Tuesday, April 12, 2011
राम-जीवन:2
रानी उनकी तीन-तीन थीं मगर पुत्र ना एक| पाने को संतान थे उसने किये उपाय अनेक
जब अनुकूल समय आया तो राजा ने ये सोचा| करूं यज्ञ और पाऊँ सुत जो करे वंश को ऊंचा
पुत्र के खातिर यज्ञ किया और पाया ऐसा वर में| चार चार बेटे खेलेंगे राजा तेरे घर में
पूर्व जनम में राजा को था दिया हरि ने दान
तेरा सुत बनकर आऊँगा, कहलाऊँगा राम |दोo-८|
आये राम गर्भ में जबसे ऐसा हुआ प्रकाश| होगा अब कल्याण सभी का थी मन में ये आस
उस दिन अंतिम दिन था मेरे काले दुखी समय का| आनेवाले राम अवध में थे हरने दुःख सबका
चैत माह के शुक्ल पक्ष की नवीं तिथी की वेला| दिन के मध्य में आया वो जो था दुःख हरने वाला
धन्य गर्भ कौशल्या का और धन्य अवध की भूमि| स्वयं विष्णु ने आकर भर दी खाली गोदी सूनी
कहो भजूं मैं क्यों ना उनको जिनका ऐसा काम| छोटा बड़ा नहीं है कोई ऐसा कहते राम
ऐसी भाक्ती चाहता मैं नचिकेता दीन
राम मेरे पानी बने मैं बन जाऊं मीन |दो0-९|
Tuesday, April 5, 2011
राम-जीवन:1
Wednesday, March 23, 2011
नमन
Saturday, March 19, 2011
होली: सररारारारारा

चेतावनी: दिमाग का किंचित इस्तेमाल भी घातक हो सकता है..ही ही ही ही.ही ही....
पिचकारी कीचड भरी मैं ले आया गोरी.
संसद-संसद खेल ले आजा अब तो बाँकी छोरी.
माया नीला रंग हैं, मनमोहन हैं ग्रीन.
राजा का रंग स्याह है, लालू एभरग्रीन.
मन मैला अपना करूं फिर खेलूँ मैं फाग.
जुड़े नाम जो स्कैम से समझूं अपना भाग.
सच बोलूंगा मैं नहीं, झूठ का दूंगा साथ.
मार झपट्टा छीन लूं जो लग जाए हाथ.
कागज़ काला कर दिया लेकिन बनी ना बात.
मुंह पर स्याही पोत दूं , नंगी कर दूं गात.
देख भांग ना दाल दे कहीं रंग में भंग
डूबो रंग के रंग में छोड़ भंग का संग.
रंग सभी के अंग मलो, रहे ना कोई कोरा.
होली के हुडदंग में बोलो सा-रा-रा-रा....
अच्छे बुरे सब लोगों को होली की शुभकामना.....
Saturday, March 5, 2011
सिसकती मानवता
वर्तमान समय का किसी के द्वारा आँखों देखा हाल कविता के माध्यम से प्रस्तुत है.
शासक ने शासित को लूटा औ धनिकों ने निर्धन को
निस्सहाय को न्याय कहाँ है सबल कूटते निर्बल को
कठपुतली का खेल चल रहा संसद के गलियारे में
खेलों से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में |१|
दंगों में जलते घर देखे और दिखे शव सड़कों पर
रक्षक ही उत्पात मचाकर नंगा नाचें सड़कों पर
खेल खून का होता निश-दिन नेता के चौबारे में
नेता से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में |२|
और सजा बाज़ार भी देखा इन सैनिक की लाशों पर.
होता था व्यापार वीर का कैसे एक इशारे में
वीरों-सी आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में. |३|
सोता शासक लेकिन ऐसे जैसे कोई बात नहीं.
डर है, हो विष्फोट कहीं ना "डल" के किसी शिकारे में.
इस डर से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में. |४|
कुछ पैसों के खातिर औरत बिकती अपनों के हाथों.
इज्जत लूट रहे हैं पापी दिन के ही उजियारे में.
पापी से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में. |५|
राजेश "नचिकेता"
Saturday, February 19, 2011
तू कहाँ: चंद मुक्तक
नहीं रहता वो मंदिर में नहीं मस्जिद में पाओगे.
जरूरी है नहीं मिल जाय गर तीरथ भी जाओगे.
उसे मतलब नहीं आजान या अरदास, कीर्तन से.
जहाँ पर भाई-चारा हो, वहाँ सब ईश पाओगे.||१||
मर गयी ढूंढती दुनिया मगर भगवान ना पाया.
किया जप तप नियम फिर भी किसी ने ईश ना पाया.
पीर औ फादरों के द्वार पे भटका मगर कह दूं .
जहाँ थी प्रेम की गंगा, वहीं अल्लाह को पाया.||२||
धरा दरवेश का हुलिया बना साधू औ सन्यासी
पहन के देख ली वल्कल रही पर आतमा प्यासी.
बना नागा मगर फिर भी जुड़ा ना शांति से नाता.
जो उतरा झूठ का चोगा, मिली खुशियाँ यहीं सारी.||३||
हविश जलने से बोलो क्या किसी को स्वर्ग मिलता है?
या बस सरिता नहाने से किसे अपवर्ग मिलता है?
अरे परलोक की चिंता बता करता है क्यूं प्यारे
जहाँ "तेरा-मेरा" ना हो, वहीं त्रैलोक मिलता है. ||४||
मिटाए द्वेष का मल जो वही तो धर्म अच्छा है.
कुटुम्बी हो सभी नर बस यही तो मर्म सच्चा है.
किसी को कष्ट देने से बड़ा है पाप ना कोई
दीन की हो अगर सेवा, तो समझो कर्म अच्छा है.||५||
नींद से जाग जा बन्दे कहीं ना देर हो जाए.
पकड़ ले अब सही रास्ता कहीं ना देर हो जाए.
ना जाने टूट जाये कब ये अपनी सांस की डोरी.
फ़टाफ़ट काम निबटा ले, कहीं ना देर हो जाए.||६||
Sunday, February 6, 2011
सरस्वती-पूजन

हँस वाहिनी मात भारती का करते हम पूजन. ||१||
तुम मन्त्रों की जननी हो, औ तुमने जाए वेद
मुझको अपना भक्त बना लो, दे दो धी का मेद. ||२||
मिटे तिमिर अज्ञान का जिससे सबको ऐसा वर दो.
वाणी पर हो संयम हरदम रसना ऐसी कर दो. ||३||
विद्या से हों युक्त सभी और ज्ञान का हो उजियारा.
ऐसी सोच सृजन कर दो माँ नहीं हो कोई झगडा.
अर्थ, कला या क्षेत्र हो कोई, अपना देश हो अगड़ा. ||५||
सबका मन निर्मल हो जाए, बहे प्रेम की गंगा.
निज-सा सबको जाने सब बस ना हो मानव नंगा. ||६||
सारे दुर्गुण दूर करो औ घट में भर दो अमृत
रक्त-पिपासू सब मर जाएँ, हो मानवता जीवित. ||७||
रोग, ताप, संताप ना व्यापे पेट रहे ना खाली.
मन में हो आनद सभी के और मुखों पे लाली. ||८||
अगर नहीं ये सब हो संभव बस इतना कर माता.
तेरा मेरा ख़तम करो, हो सबका सब से नाता. ||९||
आप सब को वसंत पंचमी की बहुत बहुत शुभकामना।
राजेश कुमार "नचिकेता"
Monday, January 31, 2011
माँ का मुकुट
नीला अम्बर श्याम हुआ, अंधियारा छाया.
झेलम का जल निर्मल से है लाल हो गया.
माँ के मस्तक से बारूदी-धुंआ उठ रहा.
उठो देश के वीरों माँ का मुकुट लुट रहा.||1||
माता के आँचल तक किसका हाथ बढ़ गया..
वधा गया दुस्साशन, रावण बलि चढ़ गया.
चीर हरण करने को ये फिर कौन उठ रहा.
उठो देश के वीरों माँ का मुकुट लुट रहा. ||2||
लिए बन्ढूकें कौन घुसा सीमा के अन्दर
रौंदो उनको ऐसे जैसे उठे बवंडर.
शत्रु आया देखो हिमगिरी पुनः जल रहा
उठो देश के वीरों माँ का मुकुट लुट रहा.||3||
कटा कलेजा विस्फोटों से, अस्थि पिघलती.
धमनी हुई विषाक्त, अंतरियाँ भी हैं जलती
पहले घायल हुआ ह्रदय अब स्वास घुट रहा
उठो देश के वीरों माँ का मुकुट लुट रहा. ||4||
चंद भेड़िये घुस आये उत्पात मचाने.
ये उद्दंड कौन आ गए? हम भी जाने.
दूषित वातावरण हुआ सौहार्द्र मिट गया.
उठो देश के वीरों माँ का मुकुट लुट रहा. ||5||
भारत की गरिमा को खंडित करने वालो.
अंतिम चेतावनी सुनो औ प्राण बचा लो.
आहूती प्राणों की देने राष्ट्र जुट रहा
उठो देश के वीरों माँ का मुकुट लुट रहा. ||6||
Saturday, January 22, 2011
कर्म
कभी हो मन अगर व्याकुल तो बस ये याद रखना तुम
कदम रुकने लगे या फिर लगे उत्साह होने गुम
हमसफ़र ना मिले तो ना सही तू रुक ना रस्ते में.
तुझे पाना हो गर मंजिल तो बस गतिशील रहना तुम |१|
अकेला आया था जग में, अकेला ही तू जाएगा
सुखों में साथ होंगे सब मगर दुःख में ना पायेगा
पड़ी विपदा अगर फिर भी न हो भगवान पर निर्भर.
तू लड़ ले स्वयं का रण खुद, नहीं अवतार आएगा. |२|
धरम है संग तेरे तो फिकर फिर तू क्यों करता है
मान ले बात कान्हा की, नहीं क्यों "कर्म" करता है.
सारथी ना हुआ कान्हा तो क्या? निर्भय रहो फिर भी
तुझमे वो शक्ति ऐसी है कि जिससे काल डरता है. |३|
अगर विश्वास मन में हो, गगन मुट्ठी में कर लेंगे
ठान ले हम अगर, पर्वत को भी चुटकी में भर लेंगे.
लिखेंगे काल के मस्तक पे हम कविता विजय-श्री के.
आये यम भी अगर एक बार को उससे भी लड़ लेंगे. |४|
शौर्य से जीतते हैं रण, यही अपनी कहानी है.
चीर दें सिन्धु का सीना, ये आदत भी पुरानी है।
करे किस्मत की क्या परवाह हम तो कर्म-योगी हैं.
जो बदले भाग्य का लेखा, वही असली जवानी है. |५|
"प्रेम की बात ही अच्छी" हमें सब लोग कहते हैं.
नहीं संग्राम हो कोई, अरे हम भी ये कहते हैं.
इससे क्या बात हो अच्छी अगर ना हो समर कोइ.
शान्ति के रास्ते हों बंद, तभी हम युद्ध करते हैं. |६|
-राजेश कुमार "नचिकेता"