Saturday, August 28, 2010

फांसी कि फांस में फंसी सरकार!!!!!!!!!!

अपने पांच साल के बच्चे, फोचला, को कंधे पे बिठा के रामोदार मस्ती में कोई चैता गता हुआ चला आ रहा था. आते ही मुझे दो भुट्टे दिए और अपने चिरपरिचित अंदाज़ में कहा "जै हो!!!"
"का हो रामोदार क्या समाचार है आज?" मैंने अभिवादन स्वीकार करते हुए यू ही पूछ लिया? मेरा ये प्रश्न सुनकर वो बालक कि तरह खिलखिलाकर ऐसे हँसा मानो कह रहा हो "क्या मूर्ख आदमी है, अखबार खुद पढ़ रहा है और समाचार मुझसे पूछ रहा है." मगर बोला "हजूर हम कोन समाचार देंगे आपको पेपर तो आप अपने पढ़ रहे हैं आपे बताइए कि का छापा है छौरा और दाढ़ीवाला के है केकरा फोटो है". उसने अजमल कसाब और अफजल गुरु कि तस्वीरों कि तरफ इशारा करते हुए पूछा. मैंने सवाल को ज्यादा गंभीरता से ना लेते हुए कहा "इन दोनों को कचहरी से फांसी कि सजा हुई है और सरकार इन्हें फांसी देने के बारे में विचार कर रही है." फांसी में मिल रही देरी कि बात सुनकर खुश हो गया और सरकार कि प्रशंसा करता हुआ बोला. "का बात है! केतना अच्छा सरकार है जो फांसी देवे से पहले एतना बार सोचता है. लगता है सच्चे में सुराज (पाठक स्वराज पढ़े) गिया है. ऐसा सरकार पैहले होता भगत सिंघ लोगवन को फांसी नई होता हजूर. लेकिन हम जाते हैं कही देर से गिये फोचला का माय हमको फांसी दे देगा."
उसकी इस बात को उसका भोलापन कहूं, या घटनाक्रम की अनभिज्ञता या कुछ और मगर उसने मेरे अंतर्मन को हिला दिया. मेरे मानसपटल पे अनमने ढंग से सुनाई गयी खबर के बदले एक बहुत ही विस्तृत और व्यापक सा प्रश्न कौंध गया. सवाल ये था की दुर्दांत आतंकी होने के बावजूद ये अब तक फांसी के फंदे से दूर है और ना जाने कितने दिन और दूर रहेंगे. साथ ही ना चाहते हुए रामोदार ने जो तुलनात्मक टिपण्णी भगत सिंह के बारे में की वो भी विस्मृत करने लायक नहीं थी. जब भगत सिंह को फांसी की सजा हुई थी तब चाहते तो गांधीजी या तब की कांग्रेस उन्हें बचा सकती थी. मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया शायद इसलिए की वो उग्रवाद और हिंसा के पक्षधर थे भले ही वो राष्ट्र के लिए ही क्यों ना किया गया हो. मगर अभी क्या हो रहा है? कसाब और अफजल गुरु ने तो राष्ट्रद्रोह किया है. फिर भी फांसी नहीं. जिस कांग्रेस ने शक्ति होने के बावजूद भगत सिंह को नहीं बचाया उसी कांग्रेस की सरकार को इन दोनो को फांसी देने में इतनी समस्या क्यों हो रही है. क्या ये इच्छा-शक्ति की कमी है या कुछ और. ये दोनों तो शास्त्र (नीचे व्याख्या देखे*) के हिसाब से आततायी की श्रेणी में आते हैं. जिसका वध सुनिश्चित करना राजा का काम है. क्या अपने राजा में प्रजा के हित कि रक्षा करने का सामर्थ्य है?
कई कोस लम्बे बायोडाटा के स्वामी होने के बावजूद अपने प्रधानमंत्री में आतंरिक और बाहरी सुरक्षा के प्रति उदासीनता उनकी उपलब्धि को खराब करती है. लोग कहते हैं उनकी अपनी राजनैतिक विवशता है. वो राजनितिक विवशता ही क्या जो प्रजा-हित के काम करने में बाधक हो.
ईश्वर हम सब कि रक्षा करे. ॐ शान्ति शान्ति शान्ति

---नचिकेता २८ अगस्त २०१०.
*(जो किसी के घर में आग लगावे, किसी को विष दे कर उसकी हत्या करे, स्त्रियों और बालको को अकारण कष्ट पहुचाये वो आततायी कहलाते हैं और राजा का कर्त्तव्य है कि ऐसा करना प्रजा को वीभत्स लगने के बावजूद उसका वध शीघ्र करे यही राष्ट्र और प्रजा के हित में है.)