सिसकती मानवता
वर्तमान समय का किसी के द्वारा आँखों देखा हाल कविता के माध्यम से प्रस्तुत है.
शासक ने शासित को लूटा औ धनिकों ने निर्धन को
निस्सहाय को न्याय कहाँ है सबल कूटते निर्बल को
कठपुतली का खेल चल रहा संसद के गलियारे में
खेलों से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में |१|
दंगों में जलते घर देखे और दिखे शव सड़कों पर
रक्षक ही उत्पात मचाकर नंगा नाचें सड़कों पर
खेल खून का होता निश-दिन नेता के चौबारे में
नेता से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में |२|
वर्तमान समय का किसी के द्वारा आँखों देखा हाल कविता के माध्यम से प्रस्तुत है.
शासक ने शासित को लूटा औ धनिकों ने निर्धन को
निस्सहाय को न्याय कहाँ है सबल कूटते निर्बल को
कठपुतली का खेल चल रहा संसद के गलियारे में
खेलों से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में |१|
दंगों में जलते घर देखे और दिखे शव सड़कों पर
रक्षक ही उत्पात मचाकर नंगा नाचें सड़कों पर
खेल खून का होता निश-दिन नेता के चौबारे में
नेता से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में |२|
बोली लगती देखी मैंने कुछ फौजी की साँसों पर
और सजा बाज़ार भी देखा इन सैनिक की लाशों पर.
होता था व्यापार वीर का कैसे एक इशारे में
वीरों-सी आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में. |३|
और सजा बाज़ार भी देखा इन सैनिक की लाशों पर.
होता था व्यापार वीर का कैसे एक इशारे में
वीरों-सी आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में. |३|
हिमगिरी को ललकार रहा वो जिसकी है औकात नहीं
सोता शासक लेकिन ऐसे जैसे कोई बात नहीं.
डर है, हो विष्फोट कहीं ना "डल" के किसी शिकारे में.
इस डर से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में. |४|
सोता शासक लेकिन ऐसे जैसे कोई बात नहीं.
डर है, हो विष्फोट कहीं ना "डल" के किसी शिकारे में.
इस डर से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में. |४|
झूठी शान के खातिर औरत मरती अपनों के हाथों.
कुछ पैसों के खातिर औरत बिकती अपनों के हाथों.
इज्जत लूट रहे हैं पापी दिन के ही उजियारे में.
पापी से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में. |५|
राजेश "नचिकेता"
कुछ पैसों के खातिर औरत बिकती अपनों के हाथों.
इज्जत लूट रहे हैं पापी दिन के ही उजियारे में.
पापी से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में. |५|
राजेश "नचिकेता"
यही है असली सच्चाई हमारी और हमारे देश की सभी लोड मानवता को आहत कर रहें है मानवता सिसक रही अंधियारे में
ReplyDeleteसच्चाई को वयां करती हुई दिल कि गहराई से लिखी गयी रचना ,बधाई
बोली लगती देखी मैंने कुछ फौजी की साँसों पर
ReplyDeleteऔर सजा बाज़ार भी देखा इन सैनिक की लाशों पर.
होता था व्यापार वीर का कैसे एक इशारे में
वीरों-सी आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में. |
Wonderful creation !
so true .
.
आक्रोषित दिल का क्रंदन आपकी सुंदर अभिव्यक्ति में हुआ है.काश !
ReplyDeleteसभी इसे सुन पाते और मानवता के कल्याण हेतु निवारण के लिए कुछ ठोस विचार और कर्म समर्पित हो जाते .
बड़ी ही मार्मिक कविता, हम भी न जाने कितनों से आहत हैं।
ReplyDeleteकविता के माध्यम से सत्य अभिव्यक्ति है.
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर पहले ही ज्योतिष के बहुत से लेख प्रकाशित हो चुके हैं.आपकी इच्छानुसार आगे और भी देंगे.
समाधान जनता-जनार्दन के हाथों में ही है।
ReplyDeleteसत्य को कहती अच्छी रचना .
ReplyDeleteदंगों में जलते घर देखे और दिखे शव सड़कों पर
ReplyDeleteरक्षक ही उत्पात मचाकर नंगा नाचें सड़कों पर
खेल खून का होता निश-दिन नेता के चौबारे में
नेता से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में |२|
बहुत सुंदर... बेहद अर्थपूर्ण पंक्तियाँ हैं.... आपकी लिखी हर पंक्ति सच को समेटे है..... सार्थक रचना ....
सच्चाई को वयां करती हुई दिल कि गहराई से लिखी गयी रचना| धन्यवाद|
ReplyDeleteकड़वी सच्चाइयों से भरी आपकी रचना मन को व्यथित करती है.
ReplyDeleteवर्त्तमान का विद्रूप उजागर किया है आपने... राजेश जी यही कड़वी सचाई है आज की!!
ReplyDeleteआधुनिक, सामाजिक, और राजनीतिक विद्रूपता का सम्यक, व् मार्मिक स्पंदन प्रस्तुत किया है
ReplyDeletebhut khoob likhte hai aap....keep it up...
ReplyDeleteसभी टिप्पणीकारों का सराहना और टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.
ReplyDeletevaah... khoon khaula diya... ek kitaab nikalo yaar rajesh bhiya... :) sujhav hai sincere.. :)
ReplyDeleteसचाई बयाँ करती ये पंक्तियाँ आँखों खोलने वाली है, आज की जरूरत है अच्छे और साहसिक कदम उठाने की, देश बहुत ही बुरे दौर से गुजर रहा है ! बहुत अच्छी कविता ... धन्यबाद !
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 08-03 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
god bless you sir you have very nice job,
ReplyDeleteaadhunik samaaj ki sachchyi yahi hai, kash vo jo lutate hain is samaj ko un logon tak ye kavita ja paati i mean they understand these meaning.,,,,
all the best
हिमगिरी को ललकार रहा वो जिसकी है औकात नहीं
ReplyDeleteसोता शासक लेकिन ऐसे जैसे कोई बात नहीं.
डर है, हो विष्फोट कहीं ना "डल" के किसी शिकारे में.
इस डर से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में. |४|
लाज़वाब! हरेक पंक्ति दिल को छू जाती है..बहुत सटीक और सुन्दर प्रस्तुति..
rajesh ji, sahi kaha apne........
ReplyDeletebadhiya rachna.......
बहुत ही सुन्दर रचना...!!
ReplyDeleteक्रांतिकारी दृष्टिकोण के साथ
समाज की कड़वी सच्चाई को दिखाती हुई...!!
झूठी शान के खातिर औरत मरती अपनों के हाथों.
ReplyDeleteकुछ पैसों के खातिर औरत बिकती अपनों के हाथों.
इज्जत लूट रहे हैं पापी दिन के ही उजियारे में.
पापी से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में. |५|
bahut hi gahre arth samate huye ,ati sundar
वाह अद्भुत प्रेरक कविता
ReplyDeleteवीरों-सी आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में
कैसा विद्रूप की यह पीड़ा भी अधियारे की है -वीर कहाँ सबको अपना मर्म दिखता फिरता है ?
@मलयज, अमरनाथ, तुलसी,...आप लोगों ने इसे पढ़ा वही अबसे बड़ी तारीफ है.
ReplyDelete@संगीता जी, चर्चा में शामिल करने और सराहना के लिए धन्यवाद.
@कैलाशजी, पूनम जी, ज्योयी जी, सुमन जी,,,,बहुमूल्य समय के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.
@अरविन्द जी, बिलकुल सही कहा आपने, एक शिष्ट सैनिक अपने क्रंदन का प्रदर्शन भी नहीं कर सकता....वो शिष्ट सैनिक चाहे सीमा प्रहरी हो या देश का एक आम नागरिक.
ReplyDeleteजानकार अच्छा लगा की कविता आप सब तक पंहुची..
प्रणाम
हिमगिरी को ललकार रहा वो जिसकी है औकात नहीं
ReplyDeleteसोता शासक लेकिन ऐसे जैसे कोई बात नहीं.
डर है, हो विष्फोट कहीं ना "डल" के किसी शिकारे में.
इस डर से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में....
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण कविता के लिए हार्दिक बधाई।
अच्छी रचना। आभार।
ReplyDeleteदुखद है पर सत्य है।
ReplyDeleteअर्थपूर्ण व लयपूर्ण अभिव्यक्ति....हर पंक्ति एक कठोत सत्य बताती है..
ReplyDelete"कठपुतली का खेल चल रहा संसद के गलियारे में
ReplyDeleteखेलों से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में |"
आपकी रचना अपनी छाप छोड़ने में समर्थ है ! शुभकामनायें !
bahut khoob...rajesh baabu...
ReplyDeletesachchyee ka hubahu varnan.....bahut achcha kiye.
ReplyDeleteहिमगिरी को ललकार रहा वो जिसकी है औकात नहीं
ReplyDeleteसोता शासक लेकिन ऐसे जैसे कोई बात नहीं.
डर है, हो विष्फोट कहीं ना "डल" के किसी शिकारे में.
इस डर से आहत मानवता सिसक रही अंधियारे में.
बहुत ही खूब.
सलाम.
achhee rachanaa ,badhaaee
ReplyDeleteकविता के माध्यम से सत्य अभिव्यक्ति है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण कविता के लिए हार्दिक बधाई।
holi ki bahut bahut badhai
ReplyDeleteholee kee bahut saaree badhaai
ReplyDeleteआपको होली के पावन और रंगमय पर्व पर हार्दिक शुभ कामनायें.
ReplyDeleteहोली पर्व की हार्दिक शुभकामनायें|
ReplyDeleteहोली पर आपको सपरिवार शुभकामनायें
ReplyDeleteआपको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteसब पाठकों को होली की बहुत बहुत शुभकामना....
ReplyDeleteBahut achchha likha hai .....bahut khub..
ReplyDelete