मेरी यह कविता मानवता के विरुद्ध षड़यंत्र रचने वालो को युद्ध के लिए ललकार है.
समर-शंख
प्रण लेते हैं झुकने देंगे मानवता का भाल नहीं.
विप्लव कि वेला आई है यह परिणय का काल नहीं.
कुंडल, कंगन त्याग देह को अब आयुध से सजने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो.||१||
रास-रंग, मकरंद-मधु हो या प्रियतम का आलिंगन
भोग मिले तीनो लोकों का या मिल जाए इन्द्रासन
नहीं रुकेंगे कदम हमारे धरम-युद्ध अब करने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो. ||२||
लालबिहारी* नहीं चाहिए, नहीं चाहिए पन्त* अभी
गीत गाये जो जीवन के अवकाश पाओ वो कवि सभी.
धमनी बने कलम, शोणित से गीत मृत्यु के रचने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो. ||३||
गदा, तेग, गांडीव तुम्हारा वीर कर रहे आवाहन
चलो तुनीरो खुद को भर लो होने वाला है अब रण
घोड़े हाथी शाला त्यागो चतुरंगिनी सजने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो||४||
हिमगिरी से बलशाली होओ, सागर से गंभीर बनो
उड़े शत्रु लघु-रेणु जैसे शौर्यवान वो वीर बनो
ऐसे वीरो कि टोली ले चक्रव्यूह अब रचने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो||५||
धूमकेतु! तुम अपनी गति दो औ नक्षत्रों अनुशासन
ग्रहों! दान तुम शस्त्रों का दो, क्षमा पृथ्वी तुम दो न
शीतल चन्दा दूर रहो तुम प्रलय भानु को तपने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो||६||
मानवता के शत्रु आओ हम तैयार खड़े हैं
तुझ जैसे कितने पापी से हम पहले भी लड़े हैं|
धर्म,सत्य से जीतेगा तू सोच रहा है मन में
सिंह हारे खरहे से ऐसा होता है क्या वन में|
रावण हो या हो विराध सब मिले धूल में क्षण में
उसी तरह अब तेरी बारी आई है इस रण में
मेरी विजय सुनिश्चित जानो विजय-थाल को सजने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो||७||
--नचिकेता।
समर-शंख
प्रण लेते हैं झुकने देंगे मानवता का भाल नहीं.
विप्लव कि वेला आई है यह परिणय का काल नहीं.
कुंडल, कंगन त्याग देह को अब आयुध से सजने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो.||१||
रास-रंग, मकरंद-मधु हो या प्रियतम का आलिंगन
भोग मिले तीनो लोकों का या मिल जाए इन्द्रासन
नहीं रुकेंगे कदम हमारे धरम-युद्ध अब करने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो. ||२||
लालबिहारी* नहीं चाहिए, नहीं चाहिए पन्त* अभी
गीत गाये जो जीवन के अवकाश पाओ वो कवि सभी.
धमनी बने कलम, शोणित से गीत मृत्यु के रचने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो. ||३||
गदा, तेग, गांडीव तुम्हारा वीर कर रहे आवाहन
चलो तुनीरो खुद को भर लो होने वाला है अब रण
घोड़े हाथी शाला त्यागो चतुरंगिनी सजने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो||४||
हिमगिरी से बलशाली होओ, सागर से गंभीर बनो
उड़े शत्रु लघु-रेणु जैसे शौर्यवान वो वीर बनो
ऐसे वीरो कि टोली ले चक्रव्यूह अब रचने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो||५||
धूमकेतु! तुम अपनी गति दो औ नक्षत्रों अनुशासन
ग्रहों! दान तुम शस्त्रों का दो, क्षमा पृथ्वी तुम दो न
शीतल चन्दा दूर रहो तुम प्रलय भानु को तपने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो||६||
मानवता के शत्रु आओ हम तैयार खड़े हैं
तुझ जैसे कितने पापी से हम पहले भी लड़े हैं|
धर्म,सत्य से जीतेगा तू सोच रहा है मन में
सिंह हारे खरहे से ऐसा होता है क्या वन में|
रावण हो या हो विराध सब मिले धूल में क्षण में
उसी तरह अब तेरी बारी आई है इस रण में
मेरी विजय सुनिश्चित जानो विजय-थाल को सजने दो
वीणा बंसी बहुत बजा ली समर-शंख अब बजने दो||७||
--नचिकेता।
* बिहारीलाल और सुमित्रानंदन जैसे महान कवियो की श्रृंगार और प्रकृति पर लिखी गयी कविता के सन्दर्भ में.