Sunday, August 14, 2011

आजादी और पंद्रह अगस्त

आजादी और पंद्रह अगस्त

सपने में देखी मैंने
एक
चौंसठ साल की वृद्धा
रात के अंतिम पहर में
खड़ी थी दिल्ली शहर में
दूर से देखा तो कमर झुकी थी
ऐसा आभाष हुआ
पास गया तो थोड़ा
विरोधाभाष हुआ
चेहरे पर झुर्रियों की
झड़ी लगी थी
मगर गहनों से लदी पड़ी थी
मुझे देख कर सहम गयी
और रही मौन
मैंने पूछा कौन?
इत्ती रात को क्या कर रही हो?
इतने जेवर डालकर
अँधेरे में कहा जा रही हो?
उसने कहा
मैं अँधेरे और अकेलेपन की आदि हूँ
क्योकि
मैं "आजादी" हूँ
जिसे होना चाहिए
लोगो के मन में
पर मैं बंद हूँ
संसद भवन में
हर अमीर, आज अपने में मस्त है
मध्यवर्ग, मंहगाई से पस्त है
हर गरीब, व्यवस्था से त्रस्त है
मुझे आज जेवर मिले हैं
क्योकि
आज पंद्रह अगस्त है
मैं रोती हूँ आततायिओं की
कारगुजारी पर
मैं जाती हूँ अब
मिलूंगी छब्बीस जनवरी पर.
स्वप्न टूटा तो
मैं खुद से कई प्रश्न कर रहा था
और उधर लाल-किले पर
जश्न मनाने का "दस्तूर" चल रहा था

सब छुट्टी में मस्त हैं

क्योकि आज पंद्रह अगस्त है