Monday, January 31, 2011

माँ का मुकुट

प्रस्तुत कविता, भारत के भाल पे आशंकित आक्रमण करने वालों के कारण पैदा हुए खतरे की ओर आम-जन का ध्यान आकर्षण के लिए है....

माँ का मुकुट

नीला अम्बर श्याम हुआ, अंधियारा छाया.
झेलम का जल निर्मल से है लाल हो गया.
माँ के मस्तक से बारूदी-धुंआ उठ रहा.
उठो देश के वीरों माँ का मुकुट लुट रहा.||1||

माता के आँचल तक किसका हाथ बढ़ गया..
वधा गया दुस्साशन, रावण बलि चढ़ गया.
चीर हरण करने को ये फिर कौन उठ रहा.
उठो देश के वीरों माँ का मुकुट लुट रहा. ||2||

लिए बन्ढूकें कौन घुसा सीमा के अन्दर
रौंदो उनको ऐसे जैसे उठे बवंडर.
शत्रु आया देखो हिमगिरी पुनः जल रहा
उठो देश के वीरों माँ का मुकुट लुट रहा.||3||

कटा कलेजा विस्फोटों से, अस्थि पिघलती.
धमनी हुई विषाक्त, अंतरियाँ भी हैं जलती
पहले घायल हुआ ह्रदय अब स्वास घुट रहा
उठो देश के वीरों माँ का मुकुट लुट रहा. ||4||

चंद भेड़िये घुस आये उत्पात मचाने.
ये उद्दंड कौन आ गए? हम भी जाने.
दूषित वातावरण हुआ सौहार्द्र मिट गया.
उठो देश के वीरों माँ का मुकुट लुट रहा. ||5||

भारत की गरिमा को खंडित करने वालो.
अंतिम चेतावनी सुनो औ प्राण बचा लो.
आहूती प्राणों की देने राष्ट्र जुट रहा
उठो देश के वीरों माँ का मुकुट लुट रहा. ||6||

राजेश कुमार "नचिकेता"

Saturday, January 22, 2011

कर्म

पहले तीन मुक्तक एक थके, परेशान और निराश व्यक्ति के मन के अन्दर का गुरु उसे प्रेरित करता हुआ जो कहता है वो है. अंत के तीन मुक्तक, पुनः उर्जावान होने के बाद उसके खुद के मन के उदगार हैं. उसके बाद वो किसी भी लडाई के लिए तैयार हो जाता है लेकिन साथ ही चाहता है कि युद्ध अंतिम मार्ग होना चाहिए और अंत तक उसको टालने की कोशिश होनी चाहिए।

कर्म: कुछ मुक्तक

कभी हो मन अगर व्याकुल तो बस ये याद रखना तुम
कदम रुकने लगे या फिर लगे उत्साह होने गुम
हमसफ़र ना मिले तो ना सही तू रुक ना रस्ते में.
तुझे पाना हो गर मंजिल तो बस गतिशील रहना तुम |१|

अकेला आया था जग में, अकेला ही तू जाएगा
सुखों में साथ होंगे सब मगर दुःख में ना पायेगा
पड़ी विपदा अगर फिर भी न हो भगवान पर निर्भर.
तू लड़ ले स्वयं का रण खुद, नहीं अवतार आएगा. |२|

धरम है संग तेरे तो फिकर फिर तू क्यों करता है
मान ले बात कान्हा की, नहीं क्यों "कर्म" करता है.
सारथी ना हुआ कान्हा तो क्या? निर्भय रहो फिर भी
तुझमे वो शक्ति ऐसी है कि जिससे काल डरता है. |३|

अगर विश्वास मन में हो, गगन मुट्ठी में कर लेंगे
ठान ले हम अगर, पर्वत को भी चुटकी में भर लेंगे.
लिखेंगे काल के मस्तक पे हम कविता विजय-श्री के.
आये यम भी अगर एक बार को उससे भी लड़ लेंगे. |४|

शौर्य से जीतते हैं रण, यही अपनी कहानी है.
चीर दें सिन्धु का सीना, ये आदत भी पुरानी है।
करे किस्मत की क्या परवाह हम तो कर्म-योगी हैं.
जो बदले भाग्य का लेखा, वही असली जवानी है. |५|

"प्रेम की बात ही अच्छी" हमें सब लोग कहते हैं.
नहीं संग्राम हो कोई, अरे हम भी ये कहते हैं.
इससे क्या बात हो अच्छी अगर ना हो समर कोइ.
शान्ति के रास्ते हों बंद, तभी हम युद्ध करते हैं. |६|

-राजेश कुमार "नचिकेता"