जो सोए है उन्हें जगाते हैं हम अपने छंदों से. हम पिघलाते लौह-बेड़ियाँ कुछ स्याही की बूंदों से...
Monday, June 28, 2010
कलयुग
मेरे द्वारा रचित
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कलीकाल घनघोर में बहती उलटी धार|
दया धरम सत्कार के बदले पड़ती मार||
लच्छ लच्छमी हो गयी, हो गया भच्छ अभच्छ |
गोरस, गंगा गंध हुई, मदिरा हो गयी स्वच्छ||
नर नारी का भेद गया, लाज बिका बाज़ार |
अंग अंग नंगा हुआ, हाय रे हाय सिंगार ||
नयन तरेरे राम पर, काम हुआ सुखमूल|
बस मादा प्यारी रही, मात-पिता भए शूल||
जुआ, कपट, व्यभिचार का बढ़ता नित व्यापार|
चोर, वधिक, पापी फिरे मुक्त सकल संसार||
रे मन! मत धीरज तजो, चिंता करो ना शोक|
धरम का ध्वज लहराएगा, गूंजेगा जयघोष||
स्वच्छ धरा हो जाएगी, साधू होंगे लोग|
जब हरि कल्कि रूप ले आयेंगे इस लोक||
---नचिकेता
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